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“तोड़ो बंधन, गढ़ो नया पथ” :सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का असाधारण जीवन और साहित्य

कुछ लोग इस दुनिया में ऐसे आते हैं जो समय से नहीं चलते, समय जिनके पीछे चलता है। वे अपने युग के लिए “असमय” होते हैं — ज़रा आगे, ज़रा अलग, ज़रा “निराले”। उन्हें समझने में समाज को वक्त लगता है, और कभी-कभी वो वक्त उनके मरने के बाद ही आता है। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ भी ऐसे ही थे।

उनके शब्दों में एक पिता की करुणा थी, एक युग की पीड़ा थी, एक संत का वैराग्य था और एक योद्धा का आक्रोश भी। उन्होंने किसी एक विचारधारा में खुद को बाँधने से इनकार कर दिया। वो जब कवि थे, तो हर बंधन से मुक्त थे। जब गद्यकार थे, तो जैसे समाज की चीरफाड़ कर रहे हों। और जब इंसान थे, तो अकेले थे — बेहद अकेले, मगर अडिग।

प्रारंभिक जीवन और संघर्षों की भूमिका

निराला का जन्म 21 फरवरी 1896 को बंगाल के मेदिनीपुर ज़िले में हुआ, लेकिन वे मूलतः उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के रहने वाले थे। उनका वास्तविक नाम सूर्यकांत त्रिपाठी था और ‘निराला’ नाम उन्होंने खुद चुना — जैसे उन्हें पहले से पता था कि वे साधारण नहीं होंगे।

उनकी शिक्षा बंगाली में हुई और उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर, बंकिम चंद्र, और विद्यासागर जैसे बंगाल के महान विचारकों से प्रेरणा ली। वे हिंदी, संस्कृत, बांग्ला, उर्दू और अंग्रेज़ी के ज्ञाता थे। पर भाषा ज्ञान से कहीं ज़्यादा उन्हें मिला दुःख का अनुभव — पत्नी और बेटी की मृत्यु, गरीबी, मानसिक अवसाद, और उपेक्षा। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।

साहित्यिक योगदान: कविता की नई परिभाषा

निराला को आमतौर पर छायावादी युग का कवि माना जाता है, लेकिन वे छायावाद के खांचे में फिट नहीं होते। उन्होंने सौंदर्य और कल्पना को यथार्थ और विद्रोह के साथ जोड़ा। उनकी प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं:
• ‘जूही की कली’ – सौंदर्य और प्रकृति की कोमल अभिव्यक्ति
• ‘राम की शक्ति पूजा’ – आत्म-संशय से जूझते राम की कथा
• ‘सरोज स्मृति’ – अपनी बेटी की मृत्यु पर लिखा गया अत्यंत मार्मिक कविता-पाठ
• ‘परिमल’, ‘गीतिका’, ‘अनामिका’ – नई भाषा, नए छंद, नए तेवर

निराला ने छंदबद्ध कविता के अनुशासन को तोड़ा और कहा कि कविता को बंधनों से मुक्त होना चाहिए। उनके इस दृष्टिकोण को पहले आलोचना मिली, लेकिन बाद में यह हिंदी कविता की मुख्यधारा बन गई। निराला की मृत्यु 15 अक्टूबर 1961 को हुई। उनका अंतिम समय अभाव, अकेलेपन और मानसिक तनाव से भरा था। लेकिन उनका साहित्य उन्हें अमर कर गया। वे न केवल कवियों के कवि हैं, बल्कि हर उस इंसान के प्रतीक हैं जो अकेला पड़कर भी सच बोलता है।

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